28 सितंबर, 2025 को दिल्ली के विज्ञान भवन में आयोजित एक कार्यक्रम में नक्सलवाद के मुद्दे पर दिल्ली विश्वविद्यालय के वाइस चांसलर योगेश सिंह के वक्तव्य पर वामपंथी गुट ने जमकर गुस्सा निकाला. क्योंकि मुद्दा वामपंथ की भवनाओं से जुड़ा था. नक्लवाद के फैलाए खून-खराबे और डर को पूरे देश के सामने लाना नक्सलवाद के समर्थकों को रास नहीं आया. भारत में बीते 10 वर्षों में नक्सलवाद को जड़ से ख़त्म करने के लिए कई अभियान चलाए गए हैं. छत्तीसगढ़, झारखंड, पश्चिम बंगाल, तेलंगाना जैसे राज्यों में इसके सिकुड़ते दायरे को देखा जा सकता है. बीते वर्षों में कई राज्यों के कईं जिले नक्सलवाद से मुक्त कराए गए हैं. भारत के वामपंथी गुट, विपक्षी दल और भारत विरोधी बाहरी ताक़तों के लिए यह एक अच्छा संदेश नहीं है. दशकों तक हक़ और समानता के नाम पर राज्यों के विकास को रोकने वाले नक्सली अब इन ताक़तों के पीछे छिप कर भारत सरकार पर कायराना वार कर रहें हैं.
भारत के गृह मंत्रालय की आधिकारिक वेबसाइट के अनुसार, वामपंथी उग्रवाद द्वारा की गई हिंसा की घटनाएं, जो 2010 में अपने उच्चतम स्तर 1936 मामलों तक पहुंच गई थीं, 2024 में घटकर 374 रह गईं, यानी 81% की कमी. इस अवधि के दौरान नागरिकों और सुरक्षा बलों की कुल मौतों की संख्या जो 2010 में 1005 थी 2024 में 85% घटकर 150 रह गई.
नक्सली और माओवादियों की कड़वी सच्चाई को सामने लाने वाले योगेश सिंह से परेशान ‘द वायर’ की अरफा खानम शेरवानी ने द वायर के यूट्यूब टैनल की हैडलाइन में ‘डीयू में ज़हर उगलते वीसी’ लाइन लिखकर अपनी भड़ास निकालने की कोशिश की. अरफा जैसे कई अन्य प्रोफेसर और पत्रकार हैं जिन्होंने नक्सलवाद-माओवाद के विचारों को शहरों तक पहुंचाने की भरपूर कोशिश की है. और आज भी कर रहे हैं.
28 सितंबर, 2025 को दिल्ली के विज्ञान भवन में नक्सलवाद के मुद्दे पर हुए एक कार्यक्रम में दिल्ली विश्वविद्यालय के वाइस चांसलर योगेश सिंह ने कहा, “नक्सलवादी-माओवादी गरीबी के नाम पर गरीबों को गरीब रखने का काम करते हैं. प्रधानमंत्री मोदी ने कहा था नक्सलवाद जंगल से तो साफ हो रहा है लेकिन अब वो शहरों में पैर पसार रहा है. अर्बन नक्सली हमारे विकास और विरासत दोनों को नुकसान पहुंचाते हैं. भारत को विकसित देश बनना है तो विकास और विरासत दोनों चाहिए. भारत के लोगौं को बेहद सतर्कता और समझदारी से काम लेने की ज़रूरत है. मीडिया को भी समझदार रहना होगा. इनके कोई चेहरे नहीं है. ये कॉलेज में प्रोफेसर हो सकते हैं, डॉक्टर हो सकते हैं, कहीं कर्मचारी हो सकते हैं.”
उन्होंने आगे कहा, “2016 में जब अफज़ल गुरु के समर्थन में नारे लगाए गए कि ‘भारत तेरे टुकड़े होंगे इंशा अल्लाह, इंशा अल्लाह और भारत की बर्बादी तक जंग रहेगी, जंग रहेगी.’ उस समय भारत का सर शर्म से झुक गया. हमें सोचना होगा कि हमारे बच्चों के मनों को कौन खराब कर रहा है. बच्चों को बरगलाकर अपना उद्देश्य पूरा करने वाले नक्सली बच्चों के सहारे ही विश्वविद्यालयों में पनपते हैं. इसका निपटारा नहीं हुआ तो जो संकल्प जंगल में पुरा नहीं हुआ वह कहीं और पूरा होगा.”
अर्बन नक्सली वाले बयान को ‘द वायर’ की महिला पत्रकार ने अपने नफरती एजेंडे के सहारे सच करती दिखती हैं. लेफ्ट के विचारों से प्रभावित अरफा खानम ने भारत की एकता और शांति बनाए रखने वाले बयान को नफ़रती बताकर अपने अर्बन नक्सल होने के पुष्टि कर दी.
योगेश सिंह ने अर्बन नक्सलवाद का उदाहरण देते हुए दिल्ली विश्वविद्याल्य सहित कईं विश्वविद्याल्यों में चल रहे पिंजरा तोड़ आंदोलन को चलाने वाली देवांगना कालिता, नताशा नरवाल के बारे में बताया जिन्होंने दिल्ली दंगो और सीएए, एनआरसी विरोधी आंदोलनों में सबसे आगे रहकर भूमिका निभाई थी. 2020 में दोनों को यूएपीए के तहत अरेस्ट किया गया. सिंह ने इन लोगों में देश, समाज, परिवार, किसी के प्रति कृतज्ञता का भाव नहीं होने की बात कही. और कहा कि देश में सबसे ज्यादा लोकतांत्रिक मूल्यों का हनन यही लोग करते हैं. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर भारत की जनता और भारत के मूल्यों का रोज़ अपमान करते हैं.
योगेश सिंह के साथ मंच पर मौजूद बस्तर रेंज के आईजी पी सुंदराजन ने बताया, “बस्तर नक्सलवादियों का अभी भी एक केंद्र है. वहां उनकी ताक़त बनी हुई है. बस्तर हमेशा नक्सलवाद की वजह से चर्चा में रहा है लेकिन बीते कई सालों में वहां चीजें बदल रही हैं. नक्सली जल, जंगल, ज़मीन के मुद्दे पर स्थानीय लोगों को गुमराह करके, डरा धमका के अपने साथ शामिल कर लेते थे. लेकिन उनकी चालें समझने के बाद स्थनीय लोग भी नक्सलियों से काफी दूर हो चुके हैं. एक समय बस्तर ब्लास्ट के लिए जाना जाता था, लेकिन अभी टूरिज्म और बस्तर दशहरा के लिए जाना जा रहा है.”
उन्होंने आगे कहा, “भारत सरकार औऱ पुलिस बल पंचतंत्र यानि विश्वास, विकास, सुरक्षा, सेवा और न्याय पर काम कर रहें हैं. नक्सल प्रभावित क्षेत्रों की संख्या 180 से घटकर 35 तक रह गई है. उनमें भी 7-8 ही अधिक प्रभावित हैं. हम 2026 तक नक्सलवाद को पूरी तरह कम कर देंगे. हमनें स्थानिय लोगों को ताक़त दी है. सड़क, पुल, रेल से क्षेत्र को जोड़ा है. सभी गांव, कुछ को छोड़कर, सड़कों से जुड़ गए हैं. नक्सली अंदर के लोगों को बाहरी दुनिया से वंचित रखते हैं. खासकर युवाओं और बच्चों को. इसलिए सड़क नहीं बनने देते ताकि बाहर के लोग अंदर न जा पाए. और अंदर के लोग बाहर.”
प्रेस सूचना ब्यूरो की 10 अप्रैल, 2025 की प्रेस विज्ञप्ति के अनुसार, मार्च 2025 में 90 नक्सली मारे गए हैं, 104 गिरफ्तार किए गए हैं और 164 ने आत्मसमर्पण किया है. 2024 में 290 नक्सलियों को मार गिराया गया, 1,090 को गिरफ्तार किया गया और 881 ने आत्मसमर्पण किया. 30 मार्च, 2025 को बीजापुर (छत्तीसगढ़) में 50 नक्सलियों ने आत्मसमर्पण कर दिया. 29 मार्च 2025 को हमारी सुरक्षा एजेंसियों ने सुकमा (छत्तीसगढ़) में एक ऑपरेशन में 16 नक्सलियों को मार गिराया.
20 मार्च 2025 को, छत्तीसगढ़ के बीजापुर और कांकेर में सुरक्षा बलों द्वारा दो अलग-अलग अभियानों में, 22 नक्सलियों को मार गिराया गया, जिससे ‘नक्सलमुक्त भारत अभियान’ में एक और बड़ी सफलता मिली. दिसंबर 2023 में, एक ही वर्ष के भीतर, 380 नक्सली मारे गए, 1,194 गिरफ्तार किए गए और 1,045 ने आत्मसमर्पण किया.
जनवरी 2024 से अब तक छत्तीसगढ़ में कुल 237 नक्सली मारे गए हैं, 812 गिरफ्तार हुए हैं और 723 ने आत्मसमर्पण किया है. पूर्वोत्तर, कश्मीर और वामपंथी उग्रवाद प्रभावित क्षेत्रों के 13,000 से ज़्यादा लोग हिंसा का छोड़कर मुख्यधारा में शामिल हो चुके हैं.
पहले नक्सल प्रभावित क्षेत्र 18,000 वर्ग किलोमीटर से ज़्यादा में फैला था, जो अब केवल 4,200 वर्ग किलोमीटर में फैला है. 2004 से 2014 के बीच नक्सली हिंसा की कुल 16,463 घटनाएं हुईं. हालांकि, 2014 से 2024 के दौरान हिंसक घटनाओं की संख्या 53% घटकर 7,744 हो गईं. इसी तरह, सुरक्षा बलों के हताहतों की संख्या भी 73% घटकर 1,851 से 509 हो गई. साथ ही नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में विकास लाने के लिए, इन क्षेत्रों के लिए बजट आवंटन में 300% की वृद्धि की गई.
भारत से नक्सलवाद का खात्मा सिर्फ जंगलों से इस खतरनाक विचार को समाप्त करके नहीं किया जा सकता. बिना बंदूक और बारूद के स्कूलों, कॉलेजों और मीडिया संस्थानों में छिपे नक्सलवाद के शहरी स्वरूप को उखाड़ फेंक कर ही इसका पूरी तरह निपटारा किया जा सकता है. योगेश सिंह ने अपने वक्तव्य में इस तरह के नक्सलवाद के बारे में विस्तार से बताते हुए कहा, “एक प्रोफेसर हैं अरूंधती रॉय. जहां भी माओवादी हिंसा की बात होती हैं वहां वह महिला उसे उचित ठहराने के लिए, उसके बचाव में लिखने के लिए तैयार रहती हैं. अपना नया नज़रिया ले आती हैं. अपना नया डेटा ले आती हैं. कश्मीर में अलगवावाद को उचित ठहराती हैं. यह वास्तव में देशद्रोह हैं. इन्होंने ‘वॉकिंग विद दी कॉमरेड’ जैसे निबंध लिखकर दुनिया भर में भारतीय लोकतंत्र को दमनकारी बताया है. वह पुलिस, सेना को व्यभचारी बताती हैं. भारत को बदनाम करने की बड़ी साजिश करती है. ऐसे लोगों से देश को सावधान होने की आवश्यकता है. ये अर्बन नक्सल हैं जो रोज़ देश को कमज़ोर करने की कोशिश करते हैं.”
उन्होंने जीएन साईबाबा के बारे में बताते हुए आगे कहा, “जीएन साईबाबा जैसे लोग नक्सलवाद-माओवाद के केंद्र हैं. जीएन साईबाबा दिल्ली विश्वविद्यालय के राम लाल आनंद कॉलेज में इंग्लिश के प्रोफेसर थे. वह एक कट्टकपंथी थे. माओवादियों के साथ उनके संबंध थे. और कक्षा के अंदर वह क्या पढ़ाते होंगे यह एक बड़ा प्रश्न है. देश में ऐसे पता नहीं कितने लोग है जो देश को नुकसान करने के लिए, बरबाद करने के लिए काम कर रहें हैं.”
भारत में माओवाद के समर्थक लोग अपने विचारों और माओवादियों के लिए अपने संवेदनाओं को खुलकर व्यक्त करते हैं. ऐसी बेशर्मी करने का कारण भारत का सहन करने वाला चरित्र है जो एक अपराधी को भी अभिव्यक्ति की आज़ादी देता है. इन्हीं लोगों में बड़ा नाम आता है सुज़ाना अरुंधती रॉय का. भारत की नींव को खोखला करने वाले झूठे इतिहास की लेखिका ने भारत में माओवादियों और उनके खूनी खेल का खुलकर बचाव किया. और भारत के एक बड़े हिस्से को हिंसा की आग में झोंके रखने का कारण बनी.
जम्मू स्थित आईआईएमसी के प्रोफेसर अनिल सौमित्र ने कुछ समय पहले अपने ब्लॉग में माओवाद और नक्लसवाद पर गहरा विश्लेषण करते हुए लिखा था, “अरुंधती का लिखा-कहा काफी पढ़ा और सुना जाता है. वर्तमान मीडिया में क्या लिखा गया, इससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण है किसके द्वारा लिखा गया. अरुंधती के पाठक और दर्शक-श्रोताओं का एक बड़ा वर्ग भी है. अरुंधती के ‘भूमकालः कॉमरेडों के साथ-साथ’ आलेख में जबर्दस्त माओवादी अपील है. जैसे शोभा-डे के लिखे में सेक्स अपील होती है. ‘हज़ार चैरासी की मां’ फिल्म में भी ऐसी ही माओवादी अपील थी. अरुंधती को पढ़कर माओवादी बन जाने का मन करता है. विकास, आदिवासी और जंगल की बात करने का मन करता है. माओवादियों-नक्सलियों की तरह हत्या, लूट, डाका, वसूली, बलात्कार और अत्याचार करने का जी करता है. पहले राष्ट्रवादियों से लेकर समाजवादियों को पढ़ने पर भी ऐसी प्रेरणा पहले कभी नहीं मिलती.”
उन्होंने आगे लिखा, “माओवाद समर्थकों और अरुंधती के पास कौन-सा स्वप्न है! क्या उनका स्वप्न आदिवासियों या आम लोगों का दुःस्वप्न है? विकास के नाम पर विनाश और हिंसा को जायज़ ठहराने वालों से हमें पूछना चाहिए कि आखिर माओवादी किसका विकास कर रहे हैं? माओवादी-नक्सली विकास की आड़ लेकर विनाश का तांडव कर रहे हैं, लेकिन शहरों में रहने वाले उनके समर्थक सरकारी कार्यवाई की निंदा यह कह कर कर रहे हैं कि माओवाद-नक्सलवाद पिछड़ेपन, विषमता और गरीबी के पैदा हुआ है. बिहार, बंगाल, उड़ीसा, छत्तीसगढ़ से लेकर मध्य प्रदेश, महाराष्ट और आंध्रा प्रदेश तक माओवादियों के मार्फत किसका विकास हुआ है, किसका विकास रुका है? नक्सलवाद के कारण हर तरफ हिंसा का आलम क्यों फैलाया गया है. दंतेवाड़ा में इंद्रावती नदी के पार माओवादियों के नियंत्रित इलाके में सन्नाटा पसरा रहता है. जिन बच्चों को स्कूल में किताब-कॉपियों और कलम-पेंसिल के साथ होना चाहिए था, वे माओवादियों के शिविरों में गोली-बारुद और इंसास-एके 47-56 का प्रशिक्षण लेकर विनाशक दस्ते बन रहे हैं.”
निश्चित तौर पर खनिज और वन संसाधनों से भरपूर वन-प्रांतर में संघर्षरत पुलिस बल और माओवादी-नक्सली हर लिहाज़ से परस्पर भिन्न और असमान हैं. एक तरफ माओवादियों की पैशाचिक वृत्ति, मानवाधिकारों से बेपरवाह, देशी लूट और विदेशी अनुदान से इकहट्ठा किए गए हथियार, मीडिया का दृश्य-अद्श्य तंत्र, भय पैदा करने के हरसंभव हथकंडों से लैस और छल-बल से अर्जित निर्दोष-निरीह आदिवासियों का समर्थन, अत्यन्त सुसंगठित व दुर्दांत प्रेरणा से भरा हुआ माओवादी लड़ाकू छापामार बल है. वहीं दूसरी ओर निर्दोंषों पर बल प्रयोग न करने की नैतिक जिम्मेदारी लिए, संसाधनों और सुविधाओं की कमी झेल रहे, राजनैतिक नेतृत्व की उहापोह से ग्रस्त, नौकरशाही के जंजाल से ग्रस्त, मानवाधिकार संगठनों के दुराग्रहों से लांछित, राज्य और केंद्र की नीति-अनीति का शिकार, वन-प्रांतरों की भौगोलिक, सामाजिक-सांस्कृतिक व आर्थिक ढांचे से अंजान सरकार के अद्र्ध-सैनिक बल. बेहतर जिंदगी की लालसा दोनों को है. एक परिवार, देश-समाज की बेहतरी चाहता है. दूसरा माओवादियों का जत्था है जो शहरी माओवादी पत्रकारों के उकसावे में पीछे नहीं हटना चाहता.
वास्तव में किसकी बेहतरी और सुरक्षा के लिए मार-काट किया जा रहा है इसका जवाब वे खुद नहीं जानते. बस हत्या अभियान में मारे गए शवों और लूटे गए हथियारों की गिनती से ही वे अपनी जीत का जश्न मानते हैं. उन सुदूर वनवासी क्षेत्रों में मार्क्स, लेनिन और माओ को कौन जानता है, जानते हैं तो बस उनके नाम से चलाए जाने वाले भय को. और किसी भा तरह जिन वनवासी योद्धाओं ने अंग्रेजों से दो-दो हाथ किए थे, उनकी तुलना स्वतंत्रता, समानता और बन्धुत्व में विश्वास नहीं रखने वाले इन माओवादियों से नहीं की जा सकती.
बीते कुछ सालों अपनी खत्म होती ताक़त से बौखलाए नक्सलवादियों के लिए आगे की राह और भी मुश्किल होने वाली है. जिसे लेकर शहरों में रहना वाले समर्थक भी कुछ करने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे. और धीरे-धीरे नक्सलवाद को अतीत बनते देख रहें हैं. इसी वर्ष गृह मंत्री अमित शाह द्वारा साझा की गई जानकारी के अनुसार, 30 वर्षों में पहली बार, 2022 में वामपंथी उग्रवाद के कारण हताहतों की संख्या 100 से नीचे थी, जो एक महत्वपूर्ण उपलब्धि है. छत्तीसगढ़ में वामपंथी उग्रवाद कैडर की 85% ताकत खत्म हो गई है.
गृह मंत्रालय की आधिकारिक वेबसाइट पर साझा की गई जानकारी के अनुसार वर्ष 2004 से 2025 तक कुल 8895 लोग, जिनमें अधिकतर आदिवासी और आम नागरिक थे, नक्सलवादियों के हाथों अपनी जान गंवा चुके हैं. लेकिन माओवादी लेखक और बुद्धिजीवी माओवादी-नक्सलियों को आदिवासियों और शोषितों का प्रतिनिधि बताते नहीं थकते. वहीं चारू मजूमदार और कानू सान्याल से लेकर गणपति, कोटेश्वर राव, पापाराव, रामन्ना, हिदमा, तेलगू दीपक और कोबाद गांधी जैसे कथित क्रांतिकारियों की पृष्ठभूमि पर गौर करने से उनके आदिवासी-किसान विरोधी व्यक्तित्व की झलक मिलती है. माओवादी भले ही शोषितों की लड़ाई की बात करते हों लेकिन इनके भीतर भी जातीय श्रेष्ठता का दुराग्रह भरा हुआ है.
हत्या पसंद उन क्रूर और निर्मम माओवादियों का चुनावों को पाखंड कहना, भारत की शासन व्यवस्था पर सवाल खड़ा करना उनके दिमागी पागलपन को दर्शाता है. वामपंथी पत्रकारों से पूछा जाना चाहिए क्या उनके पास इस पाखंड का कोई विकल्प है. साथ में यह भी बताएं कि क्या वे माओवादियों की तरह खुल्लम-खुल्ला तख्ता पलट का इरादा रखते हैं. पश्चिम बंगाल के नक्सलवादी अब माओवादी क्यों हो गए? आखिर वहां से नक्सलवादी क्यों चले गए थे, क्या नक्सलवादियों का स्वप्न पश्चिम बंगाल में पूरा हो गया था. ये कैसा स्वप्न है जो बार-बार दु:स्वप्न में बदल जाता है.
बंगाल में असफल नक्सली छत्तीसगढ़, उड़ीसा, आंध्रप्रदेश, महाराष्ट्र और बिहार के सफल माओवादी कैसे हो सकते हैं? यदि अरुंधती रॉय का कहा मान लिया जाए कि भारतीय संसद द्वारा 1950 में लागू किया गया संविधान जन-जातियों और वनवासियों के लिए दुख भरा है. संविधान ने उपनिवेशवादी नीति का अनुमोदन किया और राज्य को जन-जातियों की आवास-भूमि का संरक्षक बना दिया. रातों-रात जन-जातीय आबादी को अपनी ही भूमि का अतिक्रमण करने वालों में तब्दील कर दिया. मतदान के अधिकार के बदले में संविधान ने उनसे आजीविका और सम्मान के अधिकर छीन लिए. संसद द्वारा अपनाए गए संविधान से जन-जातीय समाज ही नहीं अन्य बहुत लोगों को दुख हो सकता है तो क्या लाखों-करोड़ों लोग माओवादियों की तरह हथियार उठा लें और लाखों-करोड़ों लोगों को अपना शत्रु बना लें?
अरुंधती वन-प्रांतर में माओवादियों से मिलने जाती हैं और आदिवासियों का विकास नहीं करने के लिए सरकार पर उद्योगपति-पंजीपति समर्थक होने का आरोप लगाती हैं. लेकिन उन्हें मालूम होना चाहिए कि उनका विकास माओवादी समर्थक अरुंधती खुद भी नहीं कर सकती. हमें यह समझना होगा कि वर्षों से कब्जे की जद्दोजहद गरीब क्षेत्रों में नहीं हो रही है, बल्कि गरीब और संसाधन सम्पन्न क्षेत्रों में हो रही है. माओवादी वहीं हैं जहां खनिज संसाधनों की मलाई है. उन्होंने वहीं अपने पैर जमाए हैं जहां कंपनियां उत्खनन को बेताब हैं. क्योंकि उगाही और वसूली के लिए यही उर्वर क्षेत्र है. उड़ीसा के कालाहांडी में भी गरीबी है. वहां सरकार नहीं पहुंची, तो माओवादी वहां भूखमरी की समस्या क्यों खत्म नहीं कर देते.
प्रो. सौमित्र ने अरुंधती के कॉमरेड प्रेम के बारे में बताते हुए लिखा था, “अरुंधती को कॉमरेड कमला की बार-बार याद आती है. वे कई बार उसके बारे में सोचती हैं. वह 17 की है. कमर में देशी कट्टा बांधे रहती है. उस 17 वर्षीय कॉमरेड की मुस्कान पर वह फिदा हैं. होना भी चाहिए. लेकिन वह अगर पुलिस के हत्थे चढ़ गई तो वे उसे मार देंगे. हो सकता है कि वे पहले उसके साथ बलात्कार करें. अरुंधती को लगता है कि इस पर कोई सवाल नहीं पूछे जाएंगे. क्योंकि वह आंतरिक सुरक्षा को ख़तरा है. लेकिन सवाल यह है कि यदि कोई पुलिस की सिपाही 17 वर्षीय कमला होगी तो माओवादी क्या करेंगे? क्या वे उसे दुर्गारूपिणी मान उसकी पूजा करेंगे? बाद में वे ससम्मान उसे पुलिस मुख्यालय या उसके मां-बाप के पास पहुचा देंगे? अरुंधती उन माओवादी कॉमरेडों से पूछ लेती तो देश को पता चल जाता. अगर वह पुलिस की सिपाही कमला 17 वर्षीया आदिवासी भी होती तो हत्थे चढ़ने पर माओवादी निश्चित ही पहले बलात्कार करते और उसे उसके परिवार वालों के सामने जिंदा दफ़न कर देते. आदिवासी क्षेत्रों की कितनी ही कमलाएं माओवादियों के हत्थे चढ़कर बलात्कार और जिंदा दफन की शिकार हो चुकी हैं. डर की वजह से आंकड़े भी संकलित नहीं होते. पुलिसिया हिंसा या आतंक के खिलाफ़ मानवाधिकार भी है और लेखक-बुद्धिजीवी भी, लेकिन माओवादी हिंसा और आतंक के खिलाफ भारत में चुप्पी साधे रखने का नियम है.”
हथियारबंद माओवादी हों या कलमबंद माओवादी, देश की अनेक समस्याओं का वास्ता देकर हिंसा को जायज़ नहीं ठहराया जा सकता. माओवाद समर्थकों के दोहरे चरित्र को देश और समाज को समझना ही होगा. आखिर किन लोगों की सहायता से हथियारबंद माओवादी देश में आतंक फैलाए हुए थे. क्या ये कलमबंद समर्थकों के इशारे पर चल रहे थे? देश में गृहयुद्ध की स्थिति पैदा कर बंदूक की नली से क्रांति लाने की रणनीति अभी भी उतनी ही मज़बूत है जितने पहले थी. अंतर सिर्फ इतना है कि विचारों ने अब बंदूक की जगह अब कलम पकड़ ली है.
कलमबंद माओवादी और वामपंथी प्रोफेसर नक्सलवादी विचारों को सींचने का काम करते हैं. उनके बचाव में रिसर्च पेपर लिखते हैं. सिलैक्टिव डेटा लाते हैं और एजेंड़ा पर आधारित विश्लेषण करते हैं. विदेशों के जरनल्स उन्हें छापते हैं. भारत को लेकर उनकी सोच बेहद ख़तरनाक हैं. भीमा कोरेगांव इसी का एक उदारण है कि किस तरह दिल्ली विश्वविद्याल्य में शिक्षक और बच्चों के माओवादियो के साथ संबंध थे और किस तरह उन्होंने देश में हिंसा फैलाने के लिए साजिश रची थी.
आज स्थिति पहले से भी भयावह हो गई है. माओवादी बुद्धिजीवी विकास की कमी, मानवाधिकार, आदिवासी उत्पीड़न, हिंदुत्व की बात लिख-कहकर देश के आम लोगों को गुमराह क्यों कर रहे हैं? अगर वे माओवादी हिंसा का खुलेआम विरोध नहीं करेंगे, उनके पक्ष में माहौल बनाएंगे, सरकार की नीतियों का विरोध करेंगे तो उन्हें माओवादियों के संरक्षक, समर्थक और मददगार क्यों न माना जाए? उनके साथ भी माओवादी-नक्सलियों जैसा बर्ताव क्यों न किया जाए? जब दंतेवाड़ा में पुलिस बल और माओवादियों के बीच मुठभेड़ हो रही थी तब दिल्ली के जंतर-मंतर पर कुछ बुद्धिजीवी उस अभियान का विरोध कर रहे थे. बाद में खबर आई कि देश की राजधानी नई दिल्ली में केंद्र सरकार के नाक के नीचे जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के कुछ क्रांतिकारी छात्रों ने माओवादियों द्वारा देश के पुलिस जवानों की हत्या का जश्न मनाया गया.
कुछ छात्रों द्वारा विरोध करने पर झड़प की नौबत आई. तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने ऐसे छात्र, छात्र संगठनों और विश्वविद्यालय पर क्या कार्यवाई की, सरकार की क्या नीति रही? कोई नहीं जानता. देश को जानने का हक़ है कि देश का कानून माओवाद-नक्सलवाद समर्थकों और देश के सुरक्षा बल के विरोधियों के बारे में क्या कहता है. यह मीडिया, खासकर यूट्यूब के माओवादी जो आतंक, हिंसा और भय को ग्लैमराइज़ कर रहे हैं और कलमबंद माओवादी जो हथियारबंद होने, राज्य के खिलाफ आतंक और हिंसा का तांडव करने और समाज को क्षत-विक्षत कर देने की प्रेरणा दे रहे थे अब अपनी ढ़लान पर हैं. जल्द ही भारत पूरी तरह नक्सलवाद मुक्त हो जाएगा. लेकिन वर्तमान समय में शहरों में जड़ जमाए बैठे इन माओवादियों का बेफिक्र होकर भारत के खिलाफ काम करना, भारत और भारत के लोगों के लिए दुर्भाग्य की बात है.
ईशा दिल्ली स्थित एक स्वतंत्र पत्रकार हैं.

