कड़वा सच

भारत में औपनिवेशिक ताक़तों के हाथों की कठपुतली ज्योतिबा फुले के झूठ ने डाली भारतीयों में फूट


ज्योतिबा फुले के माध्यम से औपनिवेशिक ताक़तों ने जिस तरह से भारत में फूट डाली, उसका प्रमाण उनकी पुस्तक ‘गुलामगिरी’ के पहले ही पेज पर मिलता है. संवाद शैली में लिखी गई इस पुस्तक की शुरुआत इस संवाद से होती है कि:

“पश्चिमी देशों में अंग्रेज़, फ़्रेंच आदि दयालु सभ्य राज्यकर्ताओं ने इकट्ठा होकर गुलामी प्रथा पर कानूनन रोक लगा दी है. इसका मतलब यह है कि उन्होंने ब्रह्मा के (धर्म) नीति नियमों को ठुकरा दिया है. क्योंकि मनुसंहिता में लिखा गया है कि ब्रह्मा (विराट पुरुष) ने अपने मुंह से ब्राह्मण वर्ण को पैदा किया है और उसने इन ब्राह्मणों की सेवा (गुलामी) करने के लिए ही अपने पांव से शूद्रों को पैदा किया है.

दूसरा पात्र कहता है: अंग्रेजों की सरकार ने गुलामी प्रथा पर पाबंदी लगा दी है, इसका मतलब ही यह है कि उन्होंने ब्रह्मा की आज्ञा को ठुकरा दिया है, यही तुम्हारा कहना है न. इस दुनिया में अंग्रेज भी कई प्रकार के लोग रहते हैं. उनको ब्रह्मा ने अपनी कौन-कौन सी इंद्रियों से पैदा किया है और इस सम्बन्ध में मनुसंहिता में क्या लिखा गया है.

अगला कथन: इसके सम्बन्ध में सभी ब्राह्मण बुद्धिमान और बुद्धिहीन यह जवाब देते हैं कि अंग्रेजों के अधम दुराचारी होने की वजह से उनके सम्बन्ध में मनुसंहिता में कुछ लिखा ही नहीं गया है.”

आज हम फूले के विचारों को यहीं तक देख पाते हैं. लेकिन ऊपरी चादर हटाने पर हमें भीतर के विनाशकारी रहस्य पता चलते हैं. फूले की नज़र में हमें गुलाम बनाने वाली औपनिवेशिक ताक़तें दयालु और सभ्य थी. यानी गुलामगिरी किसे कहते हैं, इसका इससे बेहतर उदाहरण और क्या होगा. औपनिवेशिक ताक़तों को सभ्य कहना सिविलाइजिंग मिशन की सैद्धांतिकी है. यह श्वेत आदमियों को भारतीयों से बेहतर समझने वाला विचार है.

1 जून, 1873 में प्रकाशित हुई ज्योतिराव फुले की किताब गुलामगिरी में जाति को लेकर झूठ और अंग्रेजों की विभाजनकारी नीति को फैलाने का काम किया गया है.

यह पुस्तक 1 जून, 1873 को प्रकाशित हुई थी. तब तक ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की नीतियों के कारण बंगाल में 1770 का भीषण अकाल पढ़ चुका था जिसमें एक करोड़ लोग मारे जा चुके थे. हज़ारों  आदिवासियों के विद्रोह को निर्ममतापूर्वक कुचल दिया गया था. उनमें से प्रत्येक की कहानी दर्दनाक है. क्या ज्योतिबा फूले उस समय आरक्षित वर्गों के सही प्रतिनिधि हो सकते थे? आदिवासियों की राजनीतिक चेतना तब ज्यादा विकसित थी और वे दलित अस्मिता के तथाकथित रखवालों से अधिक बेहतर तरीक़े से औपनिवेशिक सत्ता के वास्तविक चेहरे को पहचान रहे थे जबकि अंग्रेजों द्वारा भारतीय समाज के एक बड़े वर्ग को उपरिलिखित संवादों द्वारा भरमाया जा रहा था.

1857 के स्वतंत्रता संग्राम तक फुले की दयालु सभ्य सरकार के अत्याचारों की गवाही उत्तर भारत के वृक्षों पर टंगे हुए शव दे चुके थे. यंत्रणा, बलात्कार और भुखमरी के क्रूरतम दृश्य भारत सहित दुनिया भर के अन्य उपनिवेश झेल रहे थे. कैरिबियाई उपनिवेशों के निरीह लोग कोड नोइर के ज़रिए कानूनी और संस्थागत रूप से अंग भंग और मृत्यु की सजाएं झेल रहे थे. अल्जीरिया और हैती में फ्रेंच सरकार की सामूहिक हत्योओं को अंजान दे रहे थे. लेकिन सवाल यह है कि ज्योतिबा फुले देश और दुनिया से बेख़बर होकर औपनिवेशिक ताक़तों को उनके सभ्य और दयालु होने का प्रमाणपत्र क्यों दे रहे थे?  

फुले इस बात को लेकर खुश थे कि उनके ब्रिटिश शासकों ने ग़ुलामी खत्म कर दी थी. हालांकि उन्हें इस बात की चिंता नहीं थी कि ग़ुलामी खत्म करने के तत्काल बाद अंग्रेज़ों सहित इन औपनिवेशिक ताक़तों ने अनुबंध प्रणाली लागू कर दी थी. यानी नाम और रूप बदला पर अत्याचार कम नहीं हुआ.

अंग्रेजों को किसी भी तरह से चुनौती देने की हिम्मत नहीं होने के कारण ज्योतिबा ने ब्राह्मणों को हमेशा अपने निशाने पर रखा. यह जानते हुए भी कि 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने वालों में 70 प्रतिशत से अधिक ब्राह्मण थे और उन्हें उस संग्राम की विफलता की हर तरह की क़ीमत भी चुकानी पड़ी थी. क्योंकि वे लोग भारतीय और राष्ट्रवादी थे, अंग्रेज शासक नहीं इसलिए फूले के लिए उनपर विचारों से हमला करना आसान काम था. मानो फूले अंग्रेज़ी प्रतिशोध के एजेंडे में अपना विनम्र योगदान दे रहे थे.

फुले के अनुसार में अंग्रेज यदि गुलामी प्रथा जारी भी रखते तो इसलिए कि वह ब्रह्मा का दिया नियम था, नीति थी. गुलामी खतम करना ब्रह्मा के नीति नियम न मानना था. यानी भोली भाली पश्चिमी ताकतें भारत के ब्रह्मा के आधीन थीं और उनके प्रभाव में दासता को जारी रखे हुए थीं.

दासता प्रथा का समर्थन करने वाले अंग्रेज और फ्रेंच मूर्ख थे. जो बार-बार पुराने और न्यू टेस्टामेंट को दासता के समर्थन में उद्धृत करते थे. कभी ओल्ड टेस्टामेंट के जैनिसिस 9:25-27 (द कर्ज़ ऑफ कनान) को, कभी एक्सोडस 21:1-6 (लॉज़ ऑन हैब्रू सर्वन्ट्स) को. कभी लवेटिकिस 25:44-46 (लॉज़ ऑन फोरेन स्लेव्ज़) को. और कभी न्यू टेस्टामेंट के अफैंसिस इफिसियों 6:5-9 (इन्सट्रक्शन्स टू स्लेव्ज़ एंड मास्टर्स) को. कभी कोलोसेंस 3:22-25 (इन्सट्रक्शन्स टू स्लेव्ज़)को. कभी टीमोथी 6:1-2 (रैस्पैक्ट फॉर मास्टर्स) कभी टीटस 2:9-10 (ओबीडीअन्स एंड फिडैलीटी) को. उन्होंने ग़लती की कि कथित विद्वान ज्योतिबा फुले से ज्ञान नहीं लिया अन्यथा वे ब्रह्मा को दासता के समर्थन में खड़ा कर देते.

ज्योतिबा फुले की निरक्षरता का आलम यह था कि जो चीज पुरुष सूक्त में आई, उसे फुले ने मनुसंहिता बता दिया. हमे समझना होगा कि पुरुष सूक्त एक सहस्रशीर्ष, सहस्राक्ष, सहस्रपात पुरुष की बात करता है, ब्रह्मा की नहीं. ब्रह्मा के चार मुख हैं. ज़रूरी नहीं कि यह विराट पुरुष ब्रह्मा ही हैं. ऋग्वेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद में यह पुरुष सूक्त आया है और मनु उस परंपरा से अपरिचित रहे हों यह संभव नहीं था. मनुस्मृति 1.29 में लिखा है: “यद्यस्य सोSदधात्सर्गे तत्तस्य स्वयमाविशत्॥ यानी जिसको जिस कार्य के लिए बनाया गया, वह उस कार्य में स्वयं प्रवेश कर गया. यहां यह ज़रूरी नहीं कि कार्य को व्यक्ति पर लादा गया है. यह आरोपित कार्य विभाजन था. मनु ‘स्वयमाविशत्’ की बात करते हैं. जो हमें मनुस्मृति अध्याय 1, श्लोक 31 में मिलता है:

लोकानां तु विवृद्धयर्थं मुखबाहूरुपादत:.

ब्राह्मणं क्षत्रियं वैश्यं शूद्रं च निरवर्त्तर्यत्॥1.31॥

यहां ब्रह्मा का कोई उल्लेख नहीं है.

ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद् बाहू राजन्यः कृतः.

ऊरू तदस्य वैश्यः पद्भ्यां शूद्रो अजायत॥

अनुरूप ही है. मनुस्मृति में यह काम ब्रह्मा द्वारा किया बताया जाना किसी ऐसी शक्ति का ही काम हो सकता था जो भारतीय वैदिक परम्परा से परिचित न हो.

सर्वस्यास्य तु सर्गस्य गुप्त्य्र्थं स महाद्द्युतिः.

मुखबाहूरूपज्जानां प्रथक्कर्माण्यकल्पयत्॥1.87॥

यहां भी ब्रह्मा का उल्लेख नहीं है.

ज्योतिबा फुले की सेवा और सेवा भाव को गुलामी समझने और जनता के बीच भ्रम फैलाने की चालाकी एक अलग स्तर की थी. वर्तमान समय में भी सर्विस सेक्टर है और कोई व्यक्ति उसमें काम करने को गुलामी नहीं मानता. बल्कि इन दिनों वहां जाने की सबसे ज्यादा स्पर्धा है.

वह कौन सा अहंकार है जिसे सेवा गुलामी का पर्याय लगती है? वह कौन सी विद्वता है जो सर्विस और स्लेवरी में फर्क नहीं कर पाती और मनु ने ‘शुश्रूषामनसूयया’ की बात की थी. शुश्रूषा सेवा से भी बेहतर शब्द था.

क्या आधुनिक नर्सिग आन्दोलन की जन्मदाता फ्लोरेंस नाइटिंगेस शुश्रूषा न कर गुलामी कर रही थीं?

मनुस्मृति में मनु ने लिखा है कि ‘स्वमेव ब्राह्मणों भुङ्क्ते स्वं वस्ते स्वं ददाति च.‘ यानी ब्राह्मण अपना ही खाता है, अपना ही पहनता है और अपना ही दान देता है. लेकिन उसी के लिए गुलामगिरी के एक पृष्ठ का संवाद कहता है:

“अनुभव से यह पता चलता है कि अन्य जातियों की तुलना में ब्राह्मणों में सबसे ज्यादा अधम, नीच, दुष्ट और नराधम लोग हैं. इसलिए अंग्रेजों ने ब्राह्मण ग्रंथकारों की बदमाशी को पहचानकर गुलाम बनाने की प्रथा पर कानूनन पाबंदी लगा दी.” फुले ने कहा कि अनुभव से पता चलता है लेकिन वह बात कर रहे हैं ग्रंथकारों की. मतलब उन्हें न अनुभव से पता चल रहा था न ग्रंथों से. अंग्रेजों का ब्राह्मणों को प्रताड़ित करना ज्योतिबा फुले के अनुसार ठीक था. क्योंकि ये अधम, नीच, दुष्ट और नराधम लोग थे.

मंगल पांडे ने 1857 के स्वतंत्रता संग्राम का आरंभ किया था. चर्बी वाले कारतूस से धर्म भ्रष्ट होने का तात्कालिक संप्रेरण भी अपने आप में ब्राह्मणवादी था. 1857 प्रसंग में सबसे अच्छे और सबसे प्रभावशाली भारतीय विद्रोही जनरल माने जाने वाले तात्या टोपे, ब्राह्मण थे. रानी लक्ष्मीबाई, नाना साहेब भी लड़ाई में सबसे आगे नज़र आए. डेरम्पिल के अनुसार 1857 के विद्रोही सैनिकों में 90 प्रतिशत ब्राह्मण और क्षत्रिय थे.यह वह क्रांति थी जिसने भारतीयों की निष्क्रिय आध्यात्मिक छवि और विदेशी प्रभुत्व को सहने के आदी लोगों वाली छवि को एक झटके में तोड़ दिया था, इसलिए अंग्रेजों के लिए यह आवश्यक था कि वे ब्राह्मणों के प्रति नफ़रत फैलाएं. और अंग्रेजों के इस नफ़रत फैलाने वाले काम में सहयोग करने के लिए ज्योतिबा फुले तैयार थे.

आज हम यह विचार करने पर मजबूर हैं कि बंगाल प्रेसीडेंसी, सेंट्रल प्राविन्सेज़, यूनाइटेड प्राविंस में क्रांति के दमन के पश्चात विशेषत: ब्राह्मण स्त्रियों, बच्चों और पुरुषों का जो नरसंहार हुआ, उनके स्मारक क्यों नहीं बनाए गए?

क्यों इतिहास की पुस्तकों से 1857 के बाद ब्रिटिश सेनाओं की दानवीयताओं के वे सारे विवरण ग़ायब हैं? खासकर वे विवरण जो आम भारतीयों पर हुए. 6000 ब्रिटिश पक्ष के सैनिक मारे गए यह हम सभी जानते हैं लेकिन कितने भारतीय नागरिक मारे गए, इसकी जानकारी किसी पाठ्यपुस्तक में दर्ज़ नहीं है. हमें औरंगजेब, गौरी, गज़नवी, हिटलर के बारे में बताया गया पर कभी नील, हैवेलाक, हेनरी लारेंस और कैंपबेल के बारे में क्यों नहीं बताया गया?

क्या आपने कई शहरों और गांवों के सारे लोगों को मार डालना, अपने अंडकोषों का काटा जाना, रक्त से रंगे हुए भवनों की दीवारों को चटाने के बाद मौत के घाट उतारना, भट्टी से तपते हुए लोहे से जलाना, महिलाओं और पुरुषों की आंखों और प्राइवेट पार्ट्स में लाल मिर्ची डालना, खाल में कीलें ठोंकना, चूने के कमरों में मरने के लिए बंद कर देना, जैसी सज़ाओं के बारे में पाठ्यपुस्तकों में पढ़ा है?

अंग्रेजों के सभी अत्याचारों को जानने के बाद भी ज्योतिबा फुले की नज़रों में ज़ालिम और असंवेदनशील अंग्रेज दयालु और सभ्य थे. अपने देश के लोगों को नीचा गिराने की फुले की यह ललक वास्तव में देश को आज तक भी भीतर से खोखला कर रही है.  

कार्ल मार्क्स ने कहा था कि भारत अंग्रेजों का गुलाम रहे, यह बेहतर है, बनिस्बत भारत तुर्कों का गुलाम रहे. उन्हीं के देश जर्मनी के लेखक थियोडोर फोण्टेन थे जिन्होंने 1857 के भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के बाद सारी कालोनाइजेशन पॉलिसी को बकवास बताया था. उन्होंने अंग्रेजों को ‘लाल बालों वाले खुंखार’ लोग और इंग्लैंड को ‘पूरी तरह से लुटेरों और समुद्री डाकुओं का देश’ कहा था. ब्रिटिश प्रेस की रिपोर्टिंग को उन्होंने सच्चाई के मुंह पर कसकर मारा गया तमाचा बताया.

इतिहासकार अमरेश मिश्रा ने उनके अत्याचारों को अनकही प्रलय कहा. उनके अनुसार एक करोड़ भारतीय 1857-1867 के बीच ग़ायब हुए. एक अन्य अनुमान आठ लाख या इससे ज्यादा भारतीयों के मारे जाने का है. 21वीं सदी के आईएस के तौर तरीके उन क्रूरताओं के सामने कहीं नहीं टिकते. हमने जलियांवाला बाग का स्मारक बनाया, ऐसा करना बेहद ज़रूरी था लेकिन 1857 के नागरिकों को जो भुगतना पड़ा, उसे देखते हुए प्रसिद्ध इतिहासकार विलियम डेरम्पिल को जलियांवाला एक पिकनिक लगती है. उनके ऐसा कहने का उद्देश्य जलियांवाला का महत्व कम करना नहीं था, वास्तव में वह 1857 के अत्याचारों की गंभीरता बताना चाहते थे. 1857 के बाद अंग्रेजों ने सेना में ब्राह्मणों के प्रवेश पर बैन लगा दिया था.

स्वाभाविक है कि जिन्होंने सबसे ज़्यादा प्रतिरोध किया, उसके भयंकर नतीजे भी उन्होंने ही सहे हैं. लेकिन लोगों को मूर्ख बनाने के लिए ऐसी कथाएं क्यों गढ़ी गईं कि सोमनाथ के मंदिर में गज़नवी के हमले के वक़्त इतने पुजारी मौजूद थे कि वे एक-एक पत्थर भी मारते तो हमलावरों का सफाया हो जाता जबकि इस देश में प्रतिरोध आंदोलनों का नेतृत्व ब्राह्मण कब से करते आए हैं. सिकंदर के विरुद्ध भारतीयों को संगठित करने वाला चाणक्य कौन था? वास्तव में जो प्रतिरोध करते हैं, वे हमेशा नहीं जीतते.

दुख की बात है कि उन्हें ही आज शताब्दियों के अत्याचार की कहानियां सुनाई जाती है. और वामपंथ के कथित बुद्धिजीवी भीमा कोरेगांव में जिनका जश्न मनाने करने पहुंचते हैं उन्होंने अंग्रेजों का साथ दिया. देश को बांटने के विचार की नींव रखने वालों में ज्योतिबा सबसे आगे थे जो अंग्रेजों के सुर में सुर मिलाकर ब्राह्मणों को अधम, नीच, नराधम और दुष्ट बताते आए थे.

फुले के अनुसार दासता पर रोक लगाने से ब्राह्मण ग्रंथकारों की बदमाशी सबके सामने आ गई थी. जमैका, बारबाडोस, ट्रिनिडाड, टोबैगो, एंटीगुआ, बारबूडा, सेंट किट्स, नेविस, डोमिनिका, सेंट ल्युषिया, सेंट विंसेंट, ग्रेनेडाइन्स, ग्रेनेडा, गुआना, बहामा, बर्मूडा, नाइजीरिया, घाना, दक्षिण अफ़्रीका, संयुक्त राज्य अमेरिका, कनाडा में दासता ‘ब्राह्मण ग्रंथकारों की बदमाशी’ थी, अंग्रेजों की नहीं. सोचने वाली बात है, जिन ब्राह्मणों पर यह आरोप लगाया जाता था कि उन्होंने समुद्र यात्रा के विरुद्ध निषेध प्रवर्तित किए थे, वह इतने सारे देशों के स्थानीय निवासियों को गुलाम बनाने पहुंच गए थे.

शायद यह अंग्रेजों की दयालुता और सभ्यता रही होगी कि लिवरपूल के स्लेवरी म्युजियम में कहीं भी ब्राह्मण ग्रंथकारों की भूमिका का उल्लेख नहीं किया गया. और लोगों को गुलाम बनाने के अपने पाप को उन्होंने खुद ही उजागर कर दिया.

ज्योतिबा फुले का सत्यशोधक समाज अपने इस झूठे शोध से समाज और धर्म में दरार डालने के लिए पूरी तरह दोषी है. कल्पनाओं पर आधारित शोध और अंग्रेजों के सहयोग ने फुले को कुछ लोगों के बीच नायक तो बना दिया है. लेकिन वास्तव में इस कथित नायक की सच्चाई बेहद कड़वी है.