धुंआ-धुंआ एक्टिविज़्म

एक्टिविस्टों की ज़िद का परिणाम दिल्ली का प्रदूषण


बीते कुछ सालों की तरह इस साल भी दिल्ली-एनसीआर में वायु प्रदूषण खतरनाक स्तर पर पहुंच गया है. कई इलाकों में एक्यूआई 350 से ऊपर दर्ज हुआ, जिससे हवा दमघोंटू बन गई है. स्मॉग के कारण विज़बिलिटी घटी और लोगों में सांस, आंखों की जलन जैसी दिक्कतें बढ़ गईं हैं. इस तरह की हवा में लंबे समय तक रहने से गंभीर स्वास्थ्य समस्याएं हो सकती हैं. प्रदूषित हवा का असर सबसे ज्यादा बुजुर्गों, बच्चों और गर्भवती महिलाओं पर पड़ता है. दिल्ली में रहने वालों को डॉक्टरों ने सुबह की सैर या बाहर की गतिविधियों को फिलहाल टालने की सलाह दी है. इस ज़हरीले स्मॉग के कारण विजिबिलिटी भी काफी घट गई है. सुबह और शाम के समय राजधानी की सड़कों पर घना धुआं दिखाई देता है, जिससे वाहन चालकों को भारी परेशानी का सामना करना पड़ रहा है. कई जगहों पर हादसों की आशंका भी बढ़ गई है.

दिल्ली में सर्दियों की शुरुआत इसी तरह के ज़हरीले प्रदूषण से होती है. और यह स्थिति लंबे समय तक बनी रहती है. इस बार भी आने वाले कुछ दिनों में प्रदूषण से राहत मिलने की उम्मीद नहीं दिख रही. हवा की गति बहुत धीमी होने के कारण प्रदूषक कण वातावरण में फंसे हुए हैं. इसके साथ ही, तापमान में गिरावट से यह परत और नीचे बैठ रही है, जिससे हवा और भी ख़तरनाक बन रही है. विशेषज्ञों का मानना है कि पराली जलाने का साथ-साथ वाहन उत्सर्जन, निर्माण कार्यों की धूल और औद्योगिक धुआं मिलकर प्रदूषण को और बढ़ा रहे हैं.

लेकिन यहां बड़ा सवाल यह है कि दिल्ली में वाहन पूरे साल चलते हैं और निर्माण कार्य भी पूरे साल चलता है फिर सिर्फ अक्टूबर के बाद से ही प्रदूषण का खतरनाक स्तर क्यों देखने को मिलता है. वास्तव में यह प्रदूषण सालों पहले सरकार के वामपंथी एक्टिविस्टों के सामने झुक जाने का परिणाम है. और अब अपनी गलती सामने देखते हुए सभी वामपंथी प्रदूषण का ठीकरा दिवाली के पटाखों पर फोड़ देते हैं जो 2-3 दिन के भीतर साफ़ हो जाता है.     

हर साल पंजाब और हरियाणा में पराली जलाने से निकलने वाला धुआं एनसीआर में प्रवेश करता है. यह धुआं कुछ ही घंटों में पीएम 2.5 को खतरनाक स्तर पर पहुंचा देता है. यही कारण है कि कई बार अचानक दिल्ली में वायु प्रदूषण बढ़ जाता है. धुआं हवा के रुख के साथ सीधे एनसीआर की ओर बढ़ता है जलते खेतों से विशाल मात्रा में धुआं उठता है यह प्रदूषण की सबसे बड़ी मौसमी वजह बना हुआ है. लेकिन भारत के कुछ कथित लिबरल्स इस समस्या से ध्यान हटाकर दिवाली पर ठीकरा फोड़ने का काम सालों से कर रहें हैं.

प्रोफ़ेसर और एक्टिविस्टों ने कई सालों से हंगामा किया था कि लोग भूखे मर रहे है, उन्हें अनिवार्यत रोज़गार दो. तब मनरेगा नाम के फ़्रॉड का जन्म हुआ. प्रोफ़ेसर व ऐक्टिविस्टों ने फिर हंगामा किया कि लोग अभी भी भूखे मर रहे है तब फ़ूड सिक्यरिटी ऐक्ट नाम की मुफ़्तखोरी का जन्म हुआ. भारत में कुछ लोग अवश्य भूखे रहते थे मगर दूर उड़ीसा व उससे सटे उन इलाकों में जहां सिंचाई व्यवस्था व कृषि योग्य भूमि दोनों कम थे. उनकी भुखमरी का वास्तविक हल होता कि सिंचाई व्यवस्था की जाती और उद्योग लगाए जाते जिससे भूमि पर निर्भरता कम हो जाती. इन कथित ऐक्टिविस्टों का कहना था कि उद्योग लोगों का शोषण करते हैं इसलिए उन्होंने चलते हुए उद्योग भी बंद करा दिए. जिस कारण सरकार के पास सिंचाई योजना के लिए भी पैसा नहीं रहे.

उनका एक्टिविज़्म यहीं नहीं रुका, ऐक्टिविस्टों ने हंगामा किया कि पंजाब में भू-जल स्तर कम हो रहा है. हल यह था कि हिमाचल में बांध बनाकर पाकिस्तान में बह जाने वाला पानी रोका जाता. लेकिन प्रोफेसर व ऐक्टिविस्ट बांध के घोर विरोधी हैं. इसलिए सरकार ने आदेश दिया कि पंजाब में धान की फ़सल 15 जून से पहले नहीं बोई जा सकती.  

समाजवादी नीतियों के कारण वास्तविक समस्याओं की जगह ऊपरी समाधानों पर ध्यान दिया गया. यूपीए सरकार के समय तथाकथित सोशलिस्टों के दबाव में सरकार ने भविष्य के परिणामों की चिंता किए बिना उत्तर भारत के लिए प्रदूषण में घुटता भविष्य तय कर दिया.

पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तरप्रदेश में भी मनरेगा व फ़ूड सिक्यरिटी ऐक्ट लागू हुए. पहले धान की कटाई मज़दूर करते थे. वे ज़मीन से दराती मिलाकर धान काटते थे. कोई ठूंठी (पराली) ज़मीन में नहीं रहती थी. फ़सल सितंबर तक ही कट चुकी होती थी. गेंहु के लिए खेत तैयार रहता था. लेकिन मुफ़्त खाना, दारू और मनरेगा का पैसा अलग से मिले तो कोई क्यों मज़दूरी करेगा? परिणाम यह हुआ कि मज़दूर नहीं रहे और किसान हार्वस्टर ले आए. हार्वस्टर एक फ़ुट का ठूंठी छोड़ता है व फ़सल भी अब अक्टूबर के अंत में कटती है. अतः ठूंठी भी रहती है और अगली फ़सल बोनी है तो उसे जलाना भी पड़ता है. 

यह कथित एक्टिविस्ट स्वयं एक पान की दुकान लगा कर नहीं चला सकते हैं. लेकिन अहंकार से भरे ज्ञान के आधार पर देश की बाग़डोर खुद थामने के लिए बेचैन रहते हैं. भारत में ऐक्टिविस्टों को समस्या ढूंढने के लिए भी पैसे मिलते हैं व समस्या के हल के लिए जो योजना बनती है उसमें भी उनका हिस्सा रहता है. नेताओं और नौकरशाह का तो जीवन ही इन योजनाओं पर टिका है. लेकिन हम अन्य देशों के उदाहरण से देख सकते हैं कि जो देश प्रोफेसर व एक्टिविस्ट को अपना शासन चलाने देते है उनके देश का भी विनाश होता है और वे स्वयं भी धुंए में घुटते हैं.

झूठे पर्यावरण विशेषज्ञों को अब उनकी गलती का आभास कराया जाना चाहिए. हालांकि निशाने पर फिर भी त्यौहार ही रहेंगे लेकिन शायद आंकड़े उनकी बेशर्मी को साफ-साफ सामने ला लकें. हाल ही में आई आईएचएमई की रिपोर्ट के अनुसार, 2023 में दिल्ली में 17,188 लोगों की प्रदूषण से मौत हुई. यानी हर सात में से एक व्यक्ति की मौत ज़हरीली हवा की वजह से हुई. सीआरईए के विश्लेषण में पाया गया कि पार्टिकुलेट मैटर पीएम2.5 प्रदूषण अब भी दिल्ली में मौतों का सबसे बड़ा कारण बना हुआ है.

कम्युनिटी प्लेटफॉर्म लोकल सर्कल्स के सर्वे में दिल्ली, गुरुग्राम, नोएडा, फरीदाबाद और गाजियाबाद से 15,000 से ज्यादा लोगों की राय ली गई. सितंबर के आखिर 56% घरों में बीमार लोग थे लेकिन अक्टूबर के अंत तक ये आंकड़ा 75% तक पहुंच गया. सर्वे के आंकड़े बताते हैं कि 17% घरों में चार या उससे ज्यादा लोग बीमार हैं. 25% घरों में दो से तीन लोग बीमार हैं तो वहीं 33% घरों में एक व्यक्ति बीमार है. सिर्फ 25% घर पूरी तरह स्वस्थ हैं. इस तरह देखा जाए तो हर चार में से तीन घर बीमार हैं और ये सिर्फ वायरल नहीं, एक साइलेंट हेल्थ इमरजेंसी है.

एक्टिविस्टों के झूठ और उनकी गलती को छिपाने के लिए आम लोगों की नज़रों में वाहनों, त्यौहार और औद्योगिकरण के धूएं को इस प्रदूषण का मुख्य कारण बनाया जा रहा है. और कोई इन अपराधियों से सवाल पूछने के लिए तैयार नहीं है. यही अब दिल्ली की नियति बन गई है. झूठ को स्वीकारना और प्रदूषण से खासते हुए चुप रहना.


अधिरथी स्वतंत्रता के रक्षक हैं.